” मनुष्य की चेतना भीतर से कब स्वस्थ होती है? ” ~ ओशो : –
” मनुष्य की चेतना भीतर से कब स्वस्थ होती है? ” ~ ओशो : –
” ध्यान का पहला अर्थ है कि हम अपने शरीर और स्वयं के प्रति जागना शुरु करें। यह जागरण अगर बढ़ सके तो आपका मृत्यु-भय क्षीण हो जाता है। और जो चिकित्सा-शास्त् र मनुष्य को मृत्यु के भय से मुक्त नहीं कर सकता, वह चिकित्सा-शास्त् र मनुष्य नाम कीबीमारी को कभी भी स्वस्थ नहीं करसकता….. ”
” उसे भीतर की चेतना का अहसास शुरु हो जाए, भीतर की चेतना की फीलिंग शुरु हो जाए।
हमें आमतौर से भीतर की कोई फीलिंग नहीं होती। हमारी सब फीलिंग शरीर की होती है – हाथ की होती है, पैर की होती है, सिर की होती है, ह्दय की होती है। उसकी नहीं होती जो मैं हूं। हमारा सारा बोध, हमारा सारी अवेयरनेस घर की होती है, घर में रहने वाले मालिक की नहीं होती। यह बड़ी खतरनाक स्थिति है। क्योंकि कल अगर मकान गिरने लगेगा, तो मैं समझूंगा – मैं गिर रहा हूं। वही मेरी बीमारी बनेगी।
नहीं, अगर मैं यह भी जान लूं कि मैं मकान से अलग हूं, मकान के भीतर हूं, मकान गिर भी जाएगा, फिरभी मैं हो सकता हूं; तो बहुत फर्कपड़ेगा, बहुत बुनियादी फर्क पड़ जाएगा। तब मृत्यु का भय क्षीण होजाएगा।
ध्यान के अतिरिक्त मृत्यु का भय कभी भी नहीं काटता।
तो ध्यान का पहला अर्थ हैः अवेयरनेस ऑफ वनसेल्फ।
हम सदा, जब भी होश में हैं, तो हमारा होश जो है वह अवेयरनेस अबाउट, किसी चीज के बाबत है सदा। वह कभी अपने बाबत नहीं है। इसीलिए तो हम अकेले बैठें तो हमको नींद आनी शुरू हो जाती है, क्योंकि वहां क्या करे ? अखबार पढ़े, रेडियो खोलें, तो थोड़ा जागनासा मालूम पड़ता है। अगर एक आदमी को हम बिलकुल अकेले में छोड़ दें, अंधेरा कर दें कमरे में…। अंधेरे में इसीलिए नींद आ जाती है आपको, क्योंकि कुछ दिखाई नहीं पड़ता, तो चेतना की कोई जरूरत नहींरह जाती। कुछ चीज दिखायी पड़ती नहीं, तो अब क्या करे, सिवाय सोनेके कोई उपाय नहीं मालूम पड़ता। अकेले पड़ जाएं, अंधेरा हो, कोई बात करने को न हो, कुछ सोचने को न हो, तो बस आप गए नींद में। और कोई उपाय नहीं है।
ध्यान रहे, नींद और ध्यान एक अर्थमें समान हैं, एक अर्थ में भिन्न।नींद का मतलब है: आप अकेले हैं; लेकिन सो गए हैं। ध्यान का मतलब हैः आप अकेले है लेकिन जागे हुए है। बस इतना ही फर्क है। अगर आप अपने अकेलेपन में और अपने भीतर जाग सकते है अपने प्रति…
एक आदमी बुद्ध के सामने बैठा है एक दिन और अपने पैर का अंगूठा हिला रहा है। बुद्ध ने कहा कि अंगूठा क्यों हिलाते हो ?
उस आदमी ने कहा, छोड़िए! ऐसे ही हिलता था, मुझे पता न था।
बुद्ध ने कहा, तुम्हारा अंगूठा हिले और तुम्हें पता न हो! अंगूठा किसका है यह! तुम्हारा हीहै ?
उसने कहा, मेरा ही है। लेकिन आप भी कहां की बातें कर रहे हैं! आप जो बात करते थे जारी रखिए।
बुद्ध ने कहा, वह मैं नहीं करूंगाअब, क्योंकि जिस आदमी से मैं बात कर रहा हूं, वह बेहोश है। पता नहीं तुम मेरा सुन भी रहे हो कि नही…
उसने कहा कि आप भी कैसी बातें कर रहे हैं! अंगूठा हिल रहा है…..
बुद्ध ने कहा, तो अपने अंगूठे के हिलने का आगे से होश रखो। तो उससे दोहरा होश….जो होश में है अंगूठे के प्रति, उसका होश भी पैदा हो जाएगा।
अवेयरनेस इज़ आलवेज डबल एरोड। अगरहम उसका प्रयोग करें तो उसका एक तीर तो बाहर की तरफ रह जाएगा और दूसरा तीर भीतर की तरफ हो जाएगा।
तो ध्यान का पहला अर्थ है कि हम अपने शरीर और स्वयं के प्रति जागना शुरू करें। यह जागरण अगर बढ़ सके तो आपका मृत्यु-भय क्षीण हो जाता है। और जो चिकित्सा-शास्त् र मनुष्य को मृत्यु के भय से मुक्त नहीं कर सकता, वह चिकित्सा-शास्त् र मनुष्य नाम कीबीमारी को कभी भी स्वस्थ नहीं करसकता। हां, चिकित्सा-शास्त् र कोशिश करता है। वह कोशिश करता हैउम्र लंबी करके। उम्र लंबी करने से सिर्फ मृत्यु की प्रतीक्षा लंबी होती है, और कोई फर्क नहीं पड़ता। और लंबी प्रतीक्षा से छोटीप्रतीक्षा अच्छी है। उम्र लंबी करने से सिर्फ मौत और भी दुखदायीहोती चली जाती है।
क्या आपको अंदाज है कि जिन मुल्कों में चिकित्सा-शास्त् र ने लोगों की उम्र ज्यादा बढ़ा दी है, वहां एक नया आंदोलन चल रहा है, वह है अथनासिया का। वह यह है कि बूढ़े कह रहे हैं कि हमें मरने का अधिकार होना चाहिए संविधान में। क्योंकि आप हमको लटकाए चले जा रहे हैं और हमको अब जिंदा रहना बहुत कठिन हो गया। आप तो लटका सकते हैं। एक आदमी को आक्सीजन का सिलेंडर रख कर न मालूम कितनी देर तक लटका सकते हैऔर उसको जिंदा रख सकते हैं। लेकिन उसकी जिंदगी मरने से बदतर हो जाएगी।
अब न मालूम कितने लोग यूरोप और अमेरिका के अस्पतालों में उलटे-सीधे शीर्षासन की हालत मे आक्सीजन के सिलेंडरो से बंधे हुएपड़े है! उनको मरने का हक नहीं है!वे मरने के हक की मांग कर रहे हैं। मैं मानता हू कि आने वाले, इस सदी के पूरे होते-होते दुनियाके सी सुशिक्षित राष्ट्रों के संविधान में जन्मसिद्ध अधिकारोंमें मरने का अधिकार जुड़ जाएगा। क्योंकि चिकित्सक को यह हक नहीं हो सकता कि वह किसी आदमी को उसकी इच्छा के विपरीत जिंदा रखे। अब तक तो हक यह नहीं था कि उसकी इच्छा के विपरीत मारे। लेकिन अभीतक जिंदा रखने का उपाय नहीं था। अब है।
आदमी की उम्र बढ़ाने से मृत्यु काभय कम नहीं होगा। आदमी को स्वस्थकर देने से जिंदगी ज्यादा सुखी हो जाएगी, लेकिन ज्यादा अभय नहीं होगी। अभय तो सिर्फ एक ही स्थितिमें, फियरलेसनेस एक ही स्थिति में आती है कि मुझे भीतर पता चल जाए कि कुछ है जो मरता ही नहीं। उसके बिना कभी नहीं हो सकता।
तो ध्यान उस अमरत्व का बोध है। वह जो मेरे भीतर है, वह कभी नहीं मरता है। और वह जो मेरे बाहर है, वह मरता ही है। इसलिए जो बाहर है,उसकी चिकित्सा करो कि वह जितने दिन जिए, सुख से जिए। और वह जो भीतर है, उसका स्मरण करो कि मृत्यु भी द्वार पर खड़ी हो जाए तो भय न कंपा दे।”
-ओशो
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