” कर्म का नियम ” ~ ओशो : –

” कर्म का नियम ” ~ ओशो : –
” कर्म का नियम , पहले तो, नियम हीनहीं है। वह शब्द उसे इस तरह की गंध देता है जैसे वह कुछ वैज्ञानिक हो , गुरुत्वाकर्षण केनियम की तरह। वह सिर्फ एक आशा है, नियम तो जरा भी नहीं है।सदियों तक यह आशा की
गई है कि तुम भलाई करोगे तो कुछ भले परिणाम होंगे। यह अस्तित्व में एक मानवीय आशा है लेकिन अस्तित्व बिलकुल तटस्थ है।
यदि तुम प्रकृति में देखो तो वहां नियम हैं–समूचा विज्ञान इननियमों की खोज के अलावा कुछ नहींहै– लेकिन विज्ञान कर्म के नियमको खोजने के करीब भी नहीं आया है । हां, यह सुनिश्चित है कि कोई भीकृत्य उसकी प्रतिक्रिया साथ में लाएगा। लेकिन कर्म का नियम उससे भी कहीं ज्यादा आशा करता है। यदितुम इतना ही कहो कि कोई भी कृत्य उसकी प्रतिक्रिया साथ में लाएगा,उसके लिए वैज्ञानिक समर्थन जुटाना संभव है , लेकिन आदमी बहुतज्यादा आशा कर रहा है।वह कह रहा है कि शुभ कृत्य अपरिहार्य रूप से शुभ परिणाम लाएगा, और वही अशुभकृत्य के बारे में सच है।
अब इसमें बहुत सी बातें छिपी हैं। पहले, शुभ क्या है? हर समाज शुभ की परिभाषा अपने अनुसार करताहै। एक यहूदी के लिए जो शुभ है वहकिसी जैन के लिए नहीं हो सकता। एक ईसाई जिसे शुभ मानता है उसे कन्फ्यूसियस के अनुयायी शुभ नहीं मानेंगे। यही नहीं, एक संस्कृति में जो शुभ है वह दूसरीसंस्कृति में अशुभ भी होता है। कोई भी नियम वैश्विक होना चाहिए।उदाहरण के लिए, यदि तुम पानी को उबालो सौ डिग्री पर तो वह भाप बनेगा –तिब्बत, रशिया, अमरीका, ऑरेगन में भी। ऑरेगन मे वह थोड़ा बिबूचन में पड़ेगा लेकिन फिर भी सौ डिग्री पर वह वाष्पीभूत होगा ही। निश्चय ही कर्म का नियम न तो वैज्ञानिक नियम है न ही किसी कानूनी व्यवस्था का हिस्सा है।
फिर वह किस प्रकार का नियम है? वह एक आशा है। असीम अंधकार में भटकता हुआ आदमी, अपना रास्ता टटोलता हुआ, किसी भी चीज को पकड़ लेता है जो थोड़ी सी आशा बंधाती है, थोड़ी रोशनी देती है। जो तुम जिंदगी में देखते हो वह कर्म के नियम से बिलकुल अलग है कि जो आदमी जाना-माना अपराधी है वह राष्ट्रपति बन सकता है या प्रधानमंत्री बन सकता है। या इससे उल्टा भी सच है : वह पहले अपराधी नहीं होगा लेकिन राष्ट्रपति या प्रधान मंत्री बनने के बाद अपराधी हो जाता है , तो जीवन में ये अजीब स्थिति हो जाती है : बुरेलोग अच्छे पद पर पहुंच जाते हैं, आदरणीय या सम्माननीय बन जाते हैंन केवल जीते जी बल्कि पूरे इतिहास में ; इतिहास उनके नामों से भरा पड़ा है। इतिहास में गौतम बुद्ध, महावीर, कणाद,, गौतम, लाओत्ज़ु, च्वांग्त्ज़ु, लियेत्ज़ु इन लोगों का उल्लेख तुम्हें टिप्पणी में भी नहीं मिलेगा। और सिकंदर महान, चेंगीज़ खान, तैमूर लंग, नादिरशाह, नेपोलियन बोनापार्ट, अडोल्फ हिटलर, ये लोग इतिहास का बड़ा हिस्सा हथिया लेतेहैं। हमें पूरा इतिहास नए सिरे से लिखना होगा क्योंकि इन सब लोगों को पूरी तरह से मिटा देना होगा ;उनकी यादें भी सम्हालनी नहीं है । क्योंकि उनकी यादों काभी अशुभ असर होगा लोगों पर।
एक बेहतर मानवता इन नामों को टिप्पणी में भी जगह नहीं देगी , कोई जरूरत नहीं है । वे दु:स्वप्न थे। अच्छा होगा उन्हेंपूरी तरह भुला दिया जाए ताकि वे छाया की तरह तुम्हारा पीछा नहीं करेंगे। और हमें उन लोगों को खोजना होगा जो इस धरती पर जीए और उसे हर तरह से सुंदर बनाया और अपने आनंद को, नृत्य को,संगीत को ,मस्ती को बांटा लेकिन अनाम होकर जीए। लोग उनके नाम तक भूल गए हैं।
मेरी दृष्टि में हर क्रिया का परिणाम होता है लेकिन कभी अगले जन्म में नहीं, कृत्य और परिणाम सतत होते हैं, वे एक ही प्रक्रियाके हिस्से हैं। क्या तुम सोचते हो कि बीज बोना और फसल काटना अलग हैं? वह एक ही प्रक्रिया है। बीजबोने में जो शुरु हुआ है वह विकसित होता है। और एक दिन एक बीज हजारों बीज बन जाते हैं। उसेतुम फसल कहते हो ।वह वही बीज है जो हजारों बीजों में विस्फोटित हुआ है। कोई मौत बाधा नहीं बनती,कोई परलोक जीवन नहीं चाहिए ,वह एक सातत्य है।
तो एक बात ख्याल रखनी है: जीवन केबारे में मेरे विजन में, हां, हर क्रिया के कुछ परिणाम होने ही वाले हैं लेकिन वे कहीं और नहीं होंगे, वे अभी और यहीं होंगे। अधिकतर तुम्हें युगपत उनका अनुभव होगा। जब तुम किसी के साथ सहानुभूतिपूर्ण बर्ताव करते हो तो क्या तुम्हें एक तरह की खुशी नहीं होती? एक तरह की शांति? एक सार्थकता?क्या तुम्हें ऐसा नहींलगता कि तुमने जो किया है उससे तुम संतुष्ट हो? एक गहरा संतोष अनुभव होता है। क्या वह संतुष्टितुम्हें तब होती है जब तुम गुस्सा होते हो , क्रोध से उबल रहे हो , जब तुम किसी को चोट पहुंचाते हो , क्रोध से पागल हो जाते हो ? नहीं, असंभव। तुम्हें कुछ तो अनुभव होगा ही लेकिन वह होगा उदासी,कि तुमने फिर से मूढ़ की तरह बर्ताव किया; कि तुमने फिर से वही मूर्खता की जिसे न करने की तुमने बार-बार सोची थी। तुम्हारे भीतर अपरिसीम अपात्रताका बोध होगा।तुम्हें लगेगा तुम मनुष्य नहीं, एक मशीन हो क्योंकि तुम प्रतिसंवेदित नहीं करते, प्रतिक्रिया करते हो। किसी आदमी ने कुछ किया होगा और तुमने प्रतिक्रिया की । उस आदमी के हाथमें तुम्हारी चाबी है और तुम उसकी इच्छा के मुताबिक नाचे, तुम उसकी गिरफ्त में थे। जब कोई तुम्हें गाली देता है और तुम लड़ने लगते हो , तो उसका अर्थ क्याहोता है? उसका अर्थ होता है कि तुम्हारे भीतर प्रतिसंवेदित करने की क्षमता नहीं है। ”
ஜ۩۞۩ஜ ॐॐॐ ओशो ॐॐॐ ஜ۩۞۩ஜ
~ फ्रॉम पर्सनैलिटी टु इंडिविजुअलिटी , # 9

” साप्ताहिक ध्यान : माँ के गर्भ जैसी शांति पायें ” ~ ओशो : –

” साप्ताहिक ध्यान : माँ के गर्भ जैसी शांति पायें ” ~ ओशो : –
” जब भी तुम्हारे पास समय हो, बस मौन में निढाल हो जाओ, और मेरा अभिप्राय ठीक यही है-निढाल, मानोकि तुम एक छोटे बच्चे हो अपनी मा के गर्भ में…..
फर्श पर अपने घुटनों के बल बैठ जाओ और धीरे-धीरे अपना सिर भी फर्श पर लगाना चाहोगे, तब सिर फर्श पर लगा देना। गर्भासन में बैठ जाना जैसे बच्चा अपनी मां केगर्भ में अपने अंगों को सिमटाकर लेटा होता है। और शीघ्र ही तुम पाओगे कि मौन उतर रहा है, वही मौनजो मां के गर्भ में था।
अपने बिस्तर में बैठे हुए कंबल के नीचे सिमट जायें। और वहीं रहें…बिलकुल स्थिर, निष्क्रिय। कई बार कुछ विचार आयेंगे- उन्हेंगुजर जाने दें, उदासीन रहें, बिनालिप्त हुए। यदि वे आते हैं तो शुभ, नहीं आते तो शुभ। संघर्ष ना करें, उन्हें भगायें नहीं। यदि तुम संघर्ष करते हो तो तुम बेचैनहो जाओगे। यदि तुम उन्हें भगाते हो तो वे अड़ जाते हैं, तुम उन्हें चाहते नहीं और वे जाने कोलेकर अड़ जाते हैं।
बस निश्चिंत रहें; उन्हे परिधि पर रहने दें मानो ट्रैफिक का शोरहो।
और यह सचमुच ट्रैफिक का शोर है- एक दूसरे में विचार प्रवाहित करती हुई मस्तिष्क की लाखों कोशिकाएं, बहती ऊर्जा और एक सैल से दूसरे सैल पर छलांग लगाती बिजली। यह किसी भी महान यंत्र कीघरघर्राहट से कम नहीं। तो इसे होने दें। इसके प्रति बिलकुल उदासीन हो जायें, इनसे तुम्हारा कुछ लेना देना नहीं, यह तुम्हारी समस्या नहीं- किसी और की भले हो लेकिन तुम्हारी नहीं। तुम्हें इससे क्या लेना देना?
और तुम हैरान हो जाओगे: ऐसे क्षण आयेंगे जब शोर समाप्त हो जायेगा, बिलकुल समाप्त हो जायेगा, और तुम अकेले रह जाओगे। उस अकेलेपन में तुम मौन अनुभव करोगे। गर्भासन- बिलकुल जैसे तुम अपनी मां के गर्भ में हो और अधिक स्थान न होने के कारण सिमट जाते हो, और ठंड है इसलिये तुम कंबल ओढ़ लेतेहो। यह वस्तुत: एक गर्भ बन जायेगा, ऊष्मा और अंधेरे से भरा, और तुम स्वयं को बहुत छोटा महसूसकरोगे। यह तुम्हें एक अंतर्दृष्टि देगा अपने भीतर देखने की। ”
ஜ۩۞۩ஜ ॐॐॐ ओशो ॐॐॐ ஜ۩۞۩ஜ

” ईशावास्य उपनिषद : वे ही भोग पाते हैं, जो त्याग पाते हैं! ” ~ओशो : –

” ईशावास्य उपनिषद : वे ही भोग पाते हैं, जो त्याग पाते हैं! ” ~ओशो : –
” इस जगत में, इस जीवन में छोड़नेके लिए जो जितना राजी है, उतना हीउसे मिलता है। पैराडाक्सिकल है। लेकिन जीवन के सभी नियम पैराडाक्सिकल हैं। जीवन के सभी नियम बड़े विरोधाभासी हैं। विरोधी नहीं हैं, विरोधाभासी हैं। दिखाई पड़ते हैं कि विपरीत हैं। यहां जिस आदमी ने चाहा कि सम्मान मिले, उसे अपमान सुनिश्चित है। जिस आदमी ने चाहा कि मैं धनी हो जाऊं, जितना धन मिलता जाता है, वह आदमी भीतर उतनाही निर्धन होता चला जाता है। जिसआदमी ने सोचा कि मैं कभी न मरूं, वह चौबीस घंटे मौत में घिरा रहताहै। मौत का भय पकड़े रहता है। जिस आदमी ने कहा कि हम अभी मरने को राजी हैं, उसके दरवाजे पर मौत कभी नहीं आती। जो मरने को राजी हुआ, उसे अमृत का पता चल जाता है।और जो मौत से भयभीत हुआ, वह चौबीसघंटे मरता है। वह मरता ही है, जीने का उसे पता ही नहीं चलता। जिसने भी कहा कि मैं मालिक बनूंगा, वह गुलाम बन जाता है। और जिसने कहा कि हम गुलाम होने को भी राजी हैं, उसकी मालकियत का कोईहिसाब नहीं।
मगर ये उलटी बातें हैं। और इसलिएबड़ी कठिन हो जाती हैं। और इनके अर्थ जब हम निकालते हैं, तो हम आमतौर से जो अर्थ निकाल लेते हैं-वह इस विरोधाभास को बचाने केलिए जो हम अर्थ निकालते हैं-वे गलत होते हैं। इसका भी वैसा ही अर्थ लोगों ने निकाला है। लोगों ने निकाला- तेन त्यक्तेन भुञ्जीथाः- तो निकाला कि दान करोतो स्वर्ग में मिलेगा। गंगा के तट पर एक पैसा दो तो एक करोड़ गुना मोक्ष में मिलने वाला है! असल में महावाक्यों की जितनी दुर्दशा होती है जगत में, उतनी औरकिसी चीज की नहीं होती। और ऋषियों के साथ जितना अन्याय होताहै, उतना किसी और के साथ नहीं होता। क्योंकि उन्हें समझना कठिन हो जाता है। हम उनसे जो अर्थ निकालते हैं, वे अर्थ हमारे होते हैं। हमने सोचा कि यह बात बिलकुल ठीक है। कुछ दान करोगे तोपरलोक में पाओगे। लेकिन पाने के लिए करना दान। दान करना पाने के लिए।
और ध्यान रखना, सूत्र कहता है कि जो छोड़ता है, उसे मिलता है; लेकिन जो मिलने के लिए छोड़ता है,उसको मिलता है, ऐसा नहीं कहता है।जो मिलने के लिए ही छोड़ता है, वहतो छोड़ता ही नहीं। वह तो सिर्फ मिलने का इंतजार कर रहा है। जो आदमी कहता है कि मैं दान कर रहा हूं यहां, ताकि मुझे स्वर्ग में मिल जाए, वह छोड़ ही नहीं रहा। वहसिर्फ मुट्ठी आगे तक कस रहा है। अगर ठीक से समझें, तो वह इस लोक में ही कस नहीं रहा है मुट्ठी, परलोक में भी मुट्ठी कस रहा है। वह कह रहा है कि यहां तो ठीक, वहां भी! वहां भी हम छोड़ेंगे नहीं। वहां भी चाहिए। और अगर वहां मिलने का कोई पक्का भरोसा होता हो, तो हम यहां कुछ इनवेस्टमेंट, कुछ इनवेस्टमेंट कर सकते हैं। हम कुछ लगा सकते हैं पूंजी यहां, अगर परलोक में कुछ मिलने का पक्का हो।
नहीं, वह समझा ही नहीं। यह सूत्र यह नहीं कहता। यह सूत्र तो यह कहता है, जो छोड़ता है, उसे मिलताहै। यह यह नहीं कहता कि तुम इसलिए छोड़ना ताकि तुम्हें मिले। क्योंकि मिलने की जिसकी दृष्टि है, वह तो छोड़ ही नहीं सकता। वह तो सिर्फ इनवेस्ट करता है, वह छोड़ता कभी नहीं। वह तो सिर्फ पूंजी नियोजित करता है ताकि और मिल जाए।
एक आदमी एक लाख रुपया कारखाने में लगाता है, तो दान कर रहा है? नहीं। वह डेढ़ लाख मिल सकेगा इसलिए लगा रहा है। फिर वह डेढ़ लाख भी लगा देता है, तो दान कर रहा है? वह तीन लाख मिल सके इसलिए लगा रहा है। वह लगाए चला जाता है, वह लगाए चला जाता है, इसलिए कि मुट्ठी को और कसना है। और पकड़ लेना है। जो आदमी भी दान करता है पाने के लिए, उसने दान केराज को नहीं समझा। वह दान का खयाल ही उसको पता नहीं चला कि क्या है। ”
ஜ۩۞۩ஜ ॐॐॐ ओशो ॐॐॐ ஜ۩۞۩ஜ
~ ईशावास्य उपनिषद पुस्तक से

” शिक्षा में क्रांति : सफलता कोई मूल्य नहीं है ” ~ ओशो : –

” शिक्षा में क्रांति : सफलता कोई मूल्य नहीं है ” ~ ओशो : –
” मैं जब पढ़ता था तो वे कहते थे कि पढ़ोगे लिखोगे होगे नवाब, तुमको नवाब बना देंगे, तुमको तहसीलदार बनाएंगे। तुम राष्ट्रपति हो जाओगे। ये प्रलोभन हैं और ये प्रलोभन हम छोटे-छोटे बच्चों के मन में जगाते हैं। हमने कभी उनको सिखायाक्या कि तुम ऐसा जीवन बसर करना कि तुम शांत रहो, आनंदित रहो! नहीं। हमने सिखाया, तुम ऐसा जीवन बसर करना कि तुम ऊंची से ऊंची कुर्सी पर पहुंच जाओ। तुम्हारी तनख्वाह बड़ी से बड़ी हो जाए, तुम्हारे कपड़े अच्छे से अच्छे हो जाएं, तुम्हारा मकान ऊंचे से ऊंचा हो जाए, हमने यह सिखाया है। हमने हमेशा यह सिखाया है कि तुम लोभ को आगे से आगे खींचना, क्योंकि लोभ ही सफलता है। और जो असफल है उसके लिए कोई स्थान है?
इस पूरी शिक्षा में असफल के लिए जब कोई स्थान नहीं है, असफल के प्रति कोई जगह नहीं है और केवल सफलता की धुन और ज्वर हम पैदा करते हैं तो फिर स्वाभाविक है किसारी दुनिया में जो सफल होना चाहता है वह जो बन सकता है, करता है। क्योंकि सफलता आखिर में सब छिपा देती है। एक आदमी किस भांतिचपरासी से राष्ट्रपति बनता है! एक दफा राष्ट्रपति बन जाए तो फिरकुछ पता नहीं चलता कि वह कैसे राष्ट्रपति बना, कौन सी तिकड़म से, कौन सी शरारत से, कौन सी बेईमानी से, कौन से झूठ से? किस भांति से राष्ट्रपति बना, कोई जरूरत अब पूछने की नहीं है! न दुनिया में कभी कोई पूछेगा, न पूछने का कोई सवाल उठेगा। एक दफासफलता आ जाए तो सब पाप छिप जाते हैं और समाप्त हो जाते हैं। सफलता एकमात्र सूत्र है। तो जब सफलता एकमात्र सूत्र है तो मैं झूठ बोल कर क्यों न सफल हो जाऊं, बेईमानी करके क्यों न सफल हो जाऊं! अगर सत्य बोलता हूं, असफल होता हूं, तो क्या करूं?
तो हम एक तरफ सफलता को केंद्र बनाए हैं और जब झूठ बढ़ता है, बेईमानी बढ़ती है तो हम परेशान होते हैं कि यह क्या मामला है। जब तक सफलता, सक्सेस एकमात्र केंद्र है, सारी कसौटी का एकमात्र मापदंड है, तब तक दुनिया में झूठ रहेगा, बेईमानी रहेगी, चोरी रहेगी। यह नहीं हट सकती, क्योंकि अगर चोरी से सफलता मिलतीहै तो क्या किया जाए? अगर बेईमानी से सफलता मिलती है तो क्या किया जाए? बेईमानी से बचा जाए कि सफलता छोड़ी जाए, क्या किया जाए? जब सफलता एकमात्र माप है, एकमात्र मूल्य है, एकमात्र वैल्यू है कि वह आदमी महान है जो सफल हो गया तो फिर बाकी सब बातें अपने आप गौण हो जाती हैं। रोते हैं हम, चिल्लाते हैं कि बेईमानी बढ़ रही है, यह हो रहा है। यह सब बढ़ेगी, यह बढ़नी चाहिए। आप जो सिखा रहे हैं उसका फल है यह, और पांच हजार साल से जो सिखा रहे हैं उसका फल है।
सफलता की वैल्यू जानी चाहिए, सफलता कोई वैल्यू नहीं है, सफलता कोई मूल्य नहीं है। सफल आदमी कोईबड़े सम्मान की बात नहीं है। सफलनहीं सुफल होना चाहिए आदमी-सफल नहीं सुफल! एक आदमी बुरे काम में सफल हो जाए, इससे बेहतर है कि एक आदमी भले काम में असफल हो जाए। सम्मान काम से होना चाहिए, सफलता से नहीं। ”
ஜ۩۞۩ஜ ॐॐॐ ओशो ॐॐॐ ஜ۩۞۩ஜ
~ शिक्षा में क्रांति पुस्तक से

” शिक्षा में क्रांति : मनुष्य को स्वतंत्र विचार सिखाया जाए “~ ओशो : –

” शिक्षा में क्रांति : मनुष्य को स्वतंत्र विचार सिखाया जाए “~ ओशो : –
” शिक्षक के माध्यम से मनुष्य केचित्त को परतंत्रताओं की अत्यंत सूक्ष्म जंजीरों में बांधा जाता रहा है। यह सूक्ष्म शोषण बहुत पुराना है। शोषण के अनेक कारण हैं-धर्म हैं, ध
ार्मिक गुरु हैं, राजतंत्र हैं, समाज के न्यस्त स्वार्थ हैं, धनपति हैं, सत्ताधिकारी हैं।
सत्ताधिकारी ने कभी भी नहीं चाहाहै कि मनुष्य में विचार हो, क्योंकि जहां विचार है, वहां विद्रोह का बीज है। विचार मूलतः विद्रोह है। क्योंकि विचार अंधा नहीं है, विचार के पास अपनी आंखेंहैं। उसे हर कहीं नहीं ले जाया जा सकता। उसे हर कुछ करने और मानने को राजी नहीं किया जा सकताहै। उसे अंधानुयायी नहीं बनाया जा सकता है। इसलिए सत्ताधिकारी विचार के पक्ष में नहीं हैं, वे विश्वास के पक्ष में हैं। क्योंकि विश्वास अंधा है। और मनुष्य अंधा हो तो ही उसका शोषण हो सकता है। और मनुष्य अंधा हो तो ही उसे स्वयं उसके ही अमंगल में संलग्न किया जा सकता है।
मनुष्य का अंधापन उसे सब भांति के शोषण की भूमि बना देता है। इसलिए विश्वास सिखाया जाता है, आस्था सिखाई जाती है, श्रद्धा सिखाई जाती है। धर्मों ने यही किया है। राजनीतिज्ञों ने यही किया है। विचार से सभी भांति के सत्ताधिकारियों को भय है। विचार जाग”त होगा तो न तो वर्ण हो सकते हैं, न वर्ग हो सकते हैं। धन का शोषण भी नहीं हो सकता है। और शोषण को पिछले जन्मों के पाप-पुण्यों के आधार पर भी नहीं समझाया और बचाया जा सकता है।
विचार के साथ आएगी क्रांति-सब तलों पर और सब संबंधों में-राजनीतिज्ञ भी उसमें नहीं बचेंगे और राष्ट्रों की सीमाएं भी नहीं बचेंगी। मनुष्य को मनुष्य से तोड़ने वाली कोई दीवाल नहीं बच सकती है। इससे विचार से भय है, पूंजीवादी राजनीतिज्ञों को भी, साम्यवादी राजनीतिज्ञों को भी। और इस भय से सुरक्षा के लिए शिक्षा के ढांचे की ईजाद हुईहै। यह तथाकथित शिक्षा सैकड़ों वर्षों से चल रहे एक बड़े षडयंत्रका हिस्सा है। धर्म पुरोहित पहलेइस पर हावी थे, अब राज्य हावी है।
विचार के अभाव में व्यक्ति निर्मित ही नहीं हो पाता है। क्योंकि व्यक्तित्व की मूल आधारशिला ही उसमें अनुपस्थित होती है। व्यक्तित्व की मूल आधारशिला क्या है? क्या विचार कीस्वतंत्र क्षमता ही नहीं? लेकिन स्वतंत्र विचार की तो जन्म के पूर्व ही हत्या कर दी जाती है। गीता सिखाई जाती है, कुरान और बाइबिल सिखाए जाते हैं, कैपिटल और कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो सिखाएजाते हैं-उनके आधार पर, उनके ढांचे में विचार करना भी सिखाया जाता है! ऐसे विचार से ज्यादा मिथ्या और क्या हो सकता है? ऐसे अंधी पुनरुक्ति सिखाई जाती है औरउसे ही विचार करना कहा जाता है! ”
ஜ۩۞۩ஜ ॐॐॐ ओशो ॐॐॐ ஜ۩۞۩ஜ
~ शिक्षा में क्रांति पुस्तक से

मनुष्य का मन सेक्स के आस – पास ही घूमता है |

” वह Frayed ठीक कहता है की मनुष्य का मन सेक्स के आस – पास ही घूमता है | लेकिन वह यह गलत कहता है की सेक्स बहूत महत्त्वपूर्ण है इसलिए घूमता है| नहीं, घुमने का कारण है वर्जना, इनकार, विरोध, निषेध | घुमने का कारण है – हजारो साल की परंपरा ; सेक्स को टैबू , वर्जित, निन्दित, गर्हित सिद्ध करने वाली परंपरा |सेक्स को इतना महत्त्वपूर्ण बनाने वालो में साधू – संतो, महात्माओ का हाथ है उन्होंने तख्तिय लटकाई वर्जना की |
यह बड़ा उलटा मालूम पड़ेगा, लेकिन यही सत्य है और कहना ज़रूरी है ! मनुष्य जाती को सेक्सुअलिटी की, कामुकता की तरफ ले जाने का काम महात्माओ ने ही किया है | जितने जोर से वर्जना लगाई है उन्होंने, आदमी उतने जोर से आतुर होकर भागने लगा है | इधर वर्जना लगा दी है | उसका परिणाम यह हुआ है की सेक्स रग – रग से फूट कर निकल पड़ा है | कविता — थोड़ी खोज – बिन करो, ऊपर की राख हटाओ – भीतर सेक्स मिलेगा | चित्र देखो, मूर्ती देखो, सिनेमा देखो……. और साधू – संत इस वक़्त सिनेमा के बहूत खिलाफ है | और उन्हें पता नहीं की सिनेमा नहीं था तो भी आदमी यही करता था कालिदास के ग्रन्थ पढो ! कोई फिल्म इतनी अश्लील नहीं बन सकती जितने कालिदास के वचन है | उठा करदेखो पुराना साहित्य, पुराणी मुर्तिया देखो, पुराने मंदिर देखो | जो फिल्म में है, वह पत्थरों में खुदा मिलेगा | लेकिनआँख नहीं खुलती हमारी | अंधे की तरह पीटते चले जाते है लकीरों को|
सेक्स जब तक दमन किया जायेगा और जब तक स्वस्थ खुले आकाश में उसकीबात न होगी और जब तक एक – एक बच्चे के मन से वर्जना की तख्ती नहीं हटेगी, तब तक दुनिया सेक्स के Obcession से मुक्त नहीं हो सकती है, तब तक सेक्स एक रोग की तरह आदमी को पकडे रहेगा | ”
ஜ۩۞۩ஜ ॐॐॐ ओशो ॐॐॐ ஜ۩۞۩ஜ
~ ” सम्भोग से समाधी की ओर : जीवनउर्जा रूपांतरण का विज्ञानं ” ( प्रवचन #7 से )

” शास्त्रों में लिखे होने से कुछ कैसे सत्य हो जायेगा? “

” शास्त्रों में लिखे होने से कुछ कैसे सत्य हो जायेगा? सत्य का शास्त्रों से क्या सम्बन्ध? असल में सभी शास्त्रों की आड़ में तुम सत्य की खोज से बचाना चाहते हो, बुद्ध के पास लोग जाते और कहते कि वेदों में तो ऐसा लिखा है और आप कुछ और ही कहते हैं
तो बुद्ध उनसे कहते की तुम अपने वेदों में संशोधन कर लो, वे लोग बुद्ध पर नाराज हो जाते बुद्ध केदुश्मन हो जाते, कैसे अंधे लोग हैं जीवित शास्त्रा मौजूद है और तुम उनके पास मृत शास्त्रों की दुहाई दे रहो हो, जिनसे शास्त्रों का जन्म होता है वह जीवित शास्त्रा मौजूद है पर नहींजीवित शास्त्रा खतरनाक है वह तुम्हे अपने अर्थ न करने देगा, शास्त्रों के साथ तुम्हे बड़ी सुविधा है तुम जो चाहो उनसे अपनेकाम के अर्थ निकाल सकते हो, शास्त्र बेचारे तुम्हे अपने अर्थ करने से कैसे रोक सकते हैं, सतगुरु तुम्हे तुम्हारे अर्थ न करने देगा, वह तुम्हे झकजोरेगा, हजार तरीकों से तुम पर चोंट करेगा | इसलिए लोग जीवित शास्त्रा, जीवित सतगुरु से बचते हैं, बल्कि हर तरीके से उसे नष्ट करने की चेष्टा करते है|
एक बार सतगुरु मर जाये फिर तुम मजे से उसकी पूजा कर सकते हो लोग सदियों से यही करते आये हैं, जीवित बुद्ध पर पत्थर फेंके गए उन पर पागल हांथी छोड़ा गया, महावीर को लोगो ने गाँव – गाँव पत्थर मरकर भगाया उनके कानो में कीलें ठोक दी, जीसस को सूली पर लटकाया, सुकरात को जहर दिया, मंसूर के हाँथ-पैर काट डाले, यंहा लोग हर संभव प्रयास कर रहे हैं कि मुझे बोलने ही न दिया जाये मेरे आश्रम न बन पाए, मै वर्षों तक भारत के गाँव-गाँव घूमकर लोगो को समझाता रहा, मुझ परचप्पल फेके गए, पत्थर फेके गए, छुरे फेके गए, मेरी हत्या के लिए गुंडे भिजवाये गए, इतनी घबराहट क्या है?
मैंने सभी धर्मों के ठेकेदारों और राजनीतिज्ञों को चुनौती दी किमै खुले मंच पर किसी भी विषय पर बहस के लिए तैयार हूँ, पर उनमे सेकोई भी तैयार नहीं है| बात साफ़ हैमेरी बातों का उनके पास कोई जवाबनहीं है, और वे कहते है कि मै उनके धर्म को नष्ट कर रहा हूँ, उनकी नैतिकता को नष्ट कर रहा हूँ,युवकों को भटका रहा हूँ, मै कहता हूँ अगर एक व्यक्ति तुम्हारे हजारों वर्षों के धर्म और नैतिकता को नष्ट कर सकता है तो उसमे बचाने योग्य कुछ भी नहीं हैउसे नष्ट हो ही जाना चाहिए| मै तुमसे वही कह रहा हूँ जो पूर्णतःमेरा अपना अनुभव है, अपने अनुभव के अतिरिक्त मुझे किसी बात पर भरोसा नहीं है…. और मै कोई समझौता नहीं करूँगा किसी भी कारणसे नहीं…… ”
ஜ۩۞۩ஜ ॐॐॐ ओशो ॐॐॐ ஜ۩۞۩ஜ

“ધરતી નો છેડો ઘર”

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“ઘર” શબ્દ સાથે આત્મા નો સંબંધ હોય છે (મકાન નહિ હો!!) માણસ જીવનભર ભાગદોડ ભરી જીંદગી માં એક સપનું હોય છે પોતાનું ઘરનું “ઘર” હોય.એ સપનું પૂરું કરતા-કરતા માણસ પોતે ક્યારે પુરો થઈ જય છે તે પોતાને પણ ખબર રહેતી નથી.

જયારે પણ આપણે કામ પરથી ઘરે પાછા આવીએ ત્યારે આપના મન ને એક પ્રકારની અજબ ની શાંતિ નો એહસાસ થાય છે.ઘર સાથે આપના ભાવનાત્મક સંબંધ જોડાયેલા હીય છે.

બાળપણ ની યાદો હોય કે ખાટી-મીઠી યાદો હોય બધા માટે ઘર હંમેશા ખાસ હોય છે. જોકે આજની કારમી મોંઘવારી માં ઘર બનાવવું ખુબ જ અઘરું થયું છે.ઘણાને જીવનભર ભાડા ના ઘર માં જીંદગી વિતાવવી પડે છે.

આપણે બીજા ને ત્યાં મેહમાન બનીને જઈએ ત્યારે બીજા ને ઘરે ગમે તેવી સારી સુવિધા કેમ ના હોય? એક-બે દિવસ માં તો કંટાળો આવી જય,બીજા ને ઘરે રાત્રે ઊંઘ પણ ના આવે(મારે તો આવું બહુ થયેલું છે)

એટલે જ તો કહ્યું છે કે “ધરતી નો છેડો ઘર”

ધરતી નો છેડો ઘર

ધરતી નો છેડો ઘર

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” गुरु होश में लाता है ” ~ ओशो : –

” गुरु होश में लाता है ” ~ ओशो : –
” गुरु का एक ही अर्थ हैः तुम्हारी नींद को तोड़ देना। तुम्हें जगा दे, तुम्हारे सपने बिखर जाएं, तुम होश से भर जाओ
नींद बहुत गहरी है। शायद नींद कहना भी ठीक नहीं, बेहोशी है। कितना ही पुकारो, नींद के परदे केपार आवाज नहीं पहुँचती। चीखो और चिल्लाओ भी, द्वार खटखटाओ, सपने काफी मजबूत हैं। थोड़े हिलतें हैं, फिर वापिस अपने स्थान पर जम जाते हैं।
गुरु का एक ही अर्थ हैः तुम्हारीनींद को तोड़ देना। तुम्हें जगा दे, तुम्हारे सपने बिखर जाएं, तुमहोश से भर जाओ।
निश्चित ही काम कठिन है। और न केवल कठिन है बल्कि शिष्य को निरंतर लगेगा कि गुरु विघ्न डालता है।
जब तुम्हें कोई साधारण नींद से भी उठाता है तब तुम्हें लगता है, उठाने वाला मित्र नहीं, शत्रु है। नींद प्यारी है। और यह भी हो सकता है कि तुम एक सुखद सपना देख रहे हो और चाहते थे कि सपना जारी रहे। उठने का मन नहीं होता। मन सदा सोने का ही होता है।
मन आलस्य का सूत्र है। इसलिए जो भी तुम्हें झकझोरता है, जगाता है,बुरा मालूम पड़ता है। जो तुम्हें सांत्वना देता है, गीत गाता है, सुलाता है, वह तुम्हें भला मालूम पड़ता है। सांत्वना की तुम तलाश कर रहे हो, सत्य की नहीं। और इसलिए तुम्हारी सांत्वना की तलाश के कारण ही दुनिया में सौ गुरुओं में निन्यान्बे गुरु झूठे ही होते हैं। क्योंकि जब तुम कुछ मांगते हो तो कोई न कोई उसकी पूर्ति करनेवाला पैदा हो जाता है। असदगुरु जीता है क्योंकि शिष्य कुछ गलत मांग रहे हैं; खोजनेवाले कुछ गलत खोज रहे हैं।
अर्थशास्त्र का छोटा-सा नियम है-‘मांग से पूर्ति पैदा होगी’: डिमांड क्रिएटस द सप्लाय।
अगर हजारो, लाखों, करोड़ों लोगों की मांग सांत्वना की है तो कोई न कोई तुम्हें सांत्वना देने को राजी हो जाएगा। तुम्हारी सांत्वना की शोषण करने को कोई न कोई राजी हो जाएगा। कोई न कोई तुम्हें गीत गाएगा, तुम्हें सुलाएगा। कोई न कोई लोरी गानेवाला तुम्हें मिल जाएगा, जिससे तुम्हारी नींद और गहरी हो, सपना और मजबूत हो जाए।
जिस गुरु के पास जाकर तुम्हें नींद गहरी होती मालूम हो, वहां सेभागना; वहां एक क्षण रूकना मत। जो तुम्हें झकझोरता न हो, जो तुम्हें मिटाने को तैयार न बैठा हो, जो तुम्हें काट ही न डाले, उससे तुम बचना।
जीसस का एक वचन है कि लोग कहते हैं कि मैं शांति लाया हूं लेकिनमै तुमसे कहता हूं, मैं तलवार लेकर आया हूं।
इस वचन के कारण बड़ी ईसाइयों को कठिनाई रही। क्योंकि एक ओर जीसस कहते हैं कि अगर कोई तुम्हारे एकगाल पर चांटा मारे, तुम दूसरा भी उसके सामने कर देना। जो तुम्हाराकोट छीन ले, तुम कमीज भी उसे दे देना। और जो तुम्हें मजबूर करे एक मील तक अपना वजन ढोने के लिए, तुम दो मील तक उसके साथ चले जाना।
ऐसा शांतिप्रिय व्यक्ति जो कलह पैदा करना ही न चाहे, जो सब सहने को राजी हो, वह कहता है, मैं षंाति लेकर नहीं, तलवार लेकर आया हूं। यह तलवार किस तरह की है? यह तलवार गुरु की तलवार है। इस तलवार का उस तलवार से कोई संबंध नहीं, जो तुमने सैनिक की कमर पर बंधी देखी है। यह तलवार कोई प्रगट में दिखाई पड़ने वाली तलवारनहीं। यह तुम्हें मारेगी भी और तुम्हारे खून की एक बूंद भी न गिरेगी। यह तुम्हें काट भी डालेगी और तुम मरोगे भी नहीं। यहतुम्हें जलाएगी, लेकिन तुम्हारा कचरा ही जलेगा, तुम्हारा सोना निखरकर बाहर आ जाएगा।
हर गुरु के हाथ में तलवार है। और जो गुरु तुम्हें जगाना चाहेगा, वह तुम्हें शत्रु जैसा मालूम होगा।
फिर तुम्हारी नींद आज की नहीं, बहुत पुरानी है। फिर तुम्हारी नींद सिर्फ नींद नहीं है, उस नींदमें तुम्हारा लोभ, तुम्हारा मोह, तुम्हारा राग, सभी कुछ जुड़ा है। तुम्हारी आशाएं, आकांक्षाएं सब उस नींद में संयुक्त है। तुम्हारा भविष्य, तुम्हारे स्वर्ग, तुम्हारे मोक्ष, सभी उस नींद में अपनी जडों को जमाए बैठेहैं। और जब नींद टूटती है तो सभी टूट जाता है।
तुम ध्यान रखना, तुम्हारी नींद टूटेगी तो तुम्हारा संसार ही छूटजाएगा ऐसा नहीं। जिसे तुमने कल तक परमात्मा जाना था वह भी छूट जाएगा। नींद में जाने गए परमात्मा की कितनी सच्चाई हो सकती है,? तुम्हारी दुकान तो छूटेगी, तुम्हारे मंदिर भी न बचेंगे। क्योंकि नींद में ही दुकान बनाई थी, नींद मे ही मंदिर तय किये गये थे। जब नींद की दुकान गलत थी तो नींद के मंदिर कैसे सही होंगे? तुम्हारी व्यर्थ की बकवास ही न छूटेगी, तुम्हारे शास्त्र भी दो कौड़ी के हो जाएंगे। क्योंकि नींद में ही तुमने उन शास्त्रों को पढ़ा था, नींद में ही तुमने उन्हें कठंस्थकिया था, नींद में ही तुमने उनकी व्याख्या की थी। और तुम्हारे दुकान पर रखे खाते-बही अगर गलत थे तो तुम्हारी गीता, तुम्हारी कुरान, तुम्हारी बाइबिल भी सही नहीं हो सकती।
नींद अगर गलत है तो नींद का सारा फैलाव गलत है।
इसलिए गुरु तुम्हारी जब नींद छीनेगा तो तुम्हारा संसार ही नहीं छीनता, तुम्हारा मोक्ष भी छीन लेगा। वह तुमसे तुम्हारा धन ही नहीं छीनता, तुमसे तुम्हारा धर्म भी छीन लेगा।
कृष्ण ने अर्जुन को गीता में कहाहैः सर्वधर्मान परित्यज्य-’तू सबधर्मों को छोड़कर मेरी शरण में आ जा।’
तुम हिंदू हो, गुरु के पास जाते ही तुम हिंदू न रह जाओगे। और अगर तुम हिंदू रह गए तो समझना गुरु झूठा है। तुम मुसलमान हो, गुरु केपास जाते ही तुम मुसलमान न रह जाओगे। अगर फिर तुम्हें मुसलमानियत प्यारी रही तो समझना,तुम गलत जगह पहुंच गए। तुम जैन हो, बौद्ध हो, या कोई भी हो, गुरु तुमसे कहेगा, ’सर्वधर्मान् परित्यज्य!‘ सब धर्म छोड़कर तू मेरे पास आ जा।
धर्म तो अंधे की लकड़ी है। उससे वह टटोलता है। शास्त्र तो नासमझ के शब्द हैं। जो नहीं जानता, वह सिद्धान्तों से तृप्त होता है। गुरु के पास पहुँचकर तुम्हारे शास्त्र, तुम्हारे धर्म, तुम्हारी मस्जिद, मंदिर, तुम खुद,तुम्हारा सब छिन जाएगा।
इसलिए गुरु के पास जाना बड़े से बड़ा साहस है। ”
ஜ۩۞۩ஜ ॐॐॐ ओशो ॐॐॐ ஜ۩۞۩ஜ